बहुत कुछ मर गया….
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- बृजेन्द्र द्विवेदी
बहुत कुछ मर गया….
बहुत कुछ मर गया, अंदर भी और बाहर भी।
तुम्हें सड़ांध नहीं आती, तो संवेदना भी मर गई।
उद्योग धंधे भी मर गए, रोजी रोजगार जल गए।
फंतासियों के अंदाज से अंतिम छोर धधक गए।
बहुत कुछ मर गया….
लो हाथी भी मारा गया, संवेदना को दिखाया गया।
पैदल घिसटकर मर गए, तुम भाव लेकर कहाँ गए।
दो बूंद मुँह तक न गई, मानवता तड़पकर मर गई।
वो रोज तिल तिल मरेगा, नसीब में जो लिख दिया।
बहुत कुछ मर गया….
बाजीगरी भी खूब हुई, आंकड़ों से मचमचा गई।
मरहम तो बस ख्वाब है, आगे बिखरता संसार है।
भूख थक कर मर रही, जयकार पर चलती रही।
संवेदना की आस थक गई, जीत होती चली गई।
बहुत कुछ मर गया….
अब दर्द भी छुपने लगा, चुनावी बिगुल बजने लगा।
शिक्षा माफिया जग गया, नफे के लिए अकुला गया।
कोरोना तो आम हो गया, ख़ौफ़ का सेंसेक्स गिर गया।
लो बारिश भी आ ही गई, वादों की झड़ी लगने लगी।