पिथौरागढ के गांवों में रिवर्स पलायन शुरू
1 min readपिथौरागढ़| उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले की भारत—चीन सीमा पर स्थित गांवों से दशकों पहले रोजी रोटी की तलाश में गये कुछ लोग अब घर लौटने लगे हैं जिसे विशेषज्ञ रिवर्स पलायन का संकेत मान रहे हैं।
विशेषज्ञों का मानना है कि घर लौटने की यह प्रवृत्ति हाल के वर्षों में क्षेत्र में बेहतर सुविधाओं के सृजन के अलावा अपनी अनूठी सांस्कृतिक विरासत के प्रति जागरूकता के नये प्रयासों का फल है ।सीमांत गांवों के फिर धीरे—धीरे, फलने—फूलने की बढ़ती उम्मीद राष्ट्रीय सुरक्षा के लिये भी एक अच्छा संकेत है।
स्थानीय जानकारों ने बताया, ‘दशकों पहले रोजगार की तलाश में अपने पैतृक घरों को छोड़ कर चले गये लोग अब फिर अपनी जड़ों की ओर लौटने लगे हैं। यह राष्ट्रीय सुरक्षा के लिये भी अच्छा है क्योंकि इससे सीमांत गांव भी भरने लगे हैं।’ धारचूला में रं सांस्कृतिक कार्य से जुड़े अशोक नबियाल ने कहा, ‘ऐसा सीमा की आखिरी चौकी तक मोटर मार्गों के निर्माण के कारण संभव हो पाया है।
चीन के साथ लगती सीमा पर स्थित जोहार, दारमा, व्यास और चौंदास घाटियों के आखिरी गांवों तक सडकें पहुंच गयी हैं।’ बेहतर सड़क संपर्क के अलावा, कुछ सांस्कृतिक संगठनों द्वारा मरती हुई संस्कृति को बचाने के प्रति फैलाई जा रही जागृति और राज्य सरकार द्वारा शुरू पर्यटकों के लिये शुरू होम स्टे योजना को भी रिवर्स पलायन के लिए महत्वपूर्ण माना जा रहा है।
पंत ने कहा कि दारमा घाटी में रं कल्याण संस्था और जोहार घाटी में मल्ला जोहार विकास समिति द्वारा सांस्कृतिक जागरूकता फैलाने के लिए किये कार्य भी घर लौटने की प्रवृत्ति में सहायक सिद्ध हुए हैं ।मल्ला जोहार विकास समिति के अध्यक्ष और मिलम गांव के स्थायी निवासी श्रीराम सिंह धर्मशक्तू ने कहा कि वह गर्मियों में यहां रहना चाहते हैं।
सीमा सुरक्षा बल के रिटायर्ड कमांडेंट धर्मशक्तु ने कहा, ‘ मैंने मिलम में अपने पैतृक घर की मरम्मत करवा ली है और अब मैं वहां रहूंगा।’ इसी प्रकार भारतीय खाद्य निगम से बतौर अधिकारी सेवानिवृत्त हुए दिग्विजय सिंह रावत ने कहा कि उन्होंने भी अपने पैतृक गांव मिलम गांव में नया घर बना लिया है। दारमा घाटी से भी दशकों पहले पलायन कर रहे कई लोग अब अपने घरों की ओर लौट रहे हैं।
रेलवे के सेवानिवृत्त अधिकारी राम सिंह सोनल ने बताया कि दारमा घाटी के आखिरी गांव तक सडक बन जाने के बाद हमने सेब की पैदावार के लिये आदर्श इस घाटी के कई गांवों में सेब के पेड लगाये हैं। इस घाटी को सेब के बागान में तब्दील करने का सपना देख रहे सोनल ने अब दारमा घाटी में स्थित अपने पैतृक गांव सोन को ही स्थायी ठिकाना बना लिया है।
एवरेस्ट पर्वतारोही और पर्वतारोहण के क्षेत्र में योगदान के लिये पदमश्री से नवाजे गये मोहन सिंह गुंज्याल भी आइटीबीपी से रिटायरमेंट के बाद अब गर्मियों में अपना ज्यादातर समय अपने पैतृक गांव गुंजी में ही बिताते हैं। उन्होंने कहा कि वर्ष 2020 में घाटीबगड से लिपुलेख के बीच निर्माणाधीन सडक के पूरा बन जाने के बाद व्यास घाटी के गांव फिर से जीवंत हो उठेंगे।
भारत चीन सीमा पर स्थित जोहार घाटी के सभी 14 गांवों में 1962 से पहले निवास करने वाले 600 परिवारों में से करीब 40 फीसदी अपने पैतृक गांवों को छोडकर मुनस्यारी, पिथौरागढ, हल्द्वानी, अल्मोडा, देहरादून और नयी दिल्ली में स्थायी रूप से बस गये हैं जबकि बाकी बचे करीब 140 परिवार अब भी खेती कर और भेड़ पालकर अपना जीवन यापन कर रहे हैं। इन सीमांत घाटियों में रहने वाले लोगों का कहना है कि अगर सरकार उन्हें मेडिकल, संचार और यातायात की सुविधाएं उपलब्ध कराये तो सभी गांव एक बार फिर लोगों से गुलजार हो उठेंगे।
मुनस्यारी के उप जिलाधिकारी भगत सिंह फोनिया ने कहा कि गांवों की ओर लौटने की प्रवृत्ति आखिरी चौकी तक सड़क बनना शुरू होने के बाद पिछले पांच साल के भीतर उभरी है। चमोली जिले के सीमांत गांव के स्थायी निवासी फोनिया ने बताया कि रिटायरमेंट के बाद उनका इरादा भी अपने पैतृक गांव में ही बसने का है। राज्य पलायन आयोग ने अपनी ताजा रिपोर्ट में कहा है कि पिथौरागढ जिले के गांवों के करीब 41569 परिवार पिछले 20 सालों में पलायन कर अपने जिला मुख्यालय या फिर अन्यत्र चले गये हैं।