संक्रमण की पराकाष्ठा में भारत का राजधर्म
1 min readशिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, व्यापार और आर्थिक मजबूती के दावों के बीच राजधर्म विक्षिप्त अवस्था में है। सरकार, जनता के विश्वास का परिणाम ही तो है। अब अगर मंदी है तो उससे कब तक मुंह मोड़ा जा सकता है। समय रहते जिन उपायों को अपनाया जाना था, उनको ढकने की गुस्ताखियां वो व्याधियां हैं, जो आवाम के विश्वास और उसके सामाजिक तानेबाने को लील जाएंगी। जनता की ये अपेक्षाएं आपस में एकाकार होकर ही मजबूत राष्ट्र का निर्माण करती है। इस सूत्र को भुलाकर राजपुरुष आखेट पर ही रत रहें, यह राजधर्म के प्रति विद्रोह है।
देश के आर्थिक हालातों से निपटने के लिए जिस शिद्द्त से सुधार के प्रयास अपेक्षित थे, उन पर बेरहमी से बेरुखी बरती गई। राजपुरुषों को यह शोभा नही देता की वे फंतासियों में जिये और नागरिकों में मनहूसियत पसर जाए। आग से खेलना हो तो पहले घर को मजबूत किया जाता है। सनातन व्यवस्था की मान्य स्वीकृतियों के प्रकाश में वर्तमान परिपेक्ष्य पर गौर करें तो मजबूत सरकार का यह भी धर्म है कि वह अपने नागरिकों के समक्ष आने वाली कठिन परिस्थितियों का डटकर मुकाबला करे न कि आखेट पर निकल पड़े।
भारत जीता जागता राष्ट्र पुरुष है और उसके सनातन संकल्प में राजधर्म रचा बसा है। राजपुरुषों का उसके राजधर्म से विद्रोह बड़ा पीड़ादायक और अपमानजनक हालातों को जन्म दे सकता है। जनता के विश्वास पर खरा उतरने की वास्तविक चुनौतियाँ दानव की तरह खड़ी हो गईं है। अब इससे ध्यान हटाने और मजबूती से खड़े होने का अभिनय छोड़िए और काम पर लग जाईये श्रीमान वरना प्राकृतिक न्याय किसी को बख्शने की तारीख भी नही बढ़ाता।