Sun. Oct 6th, 2024

मजबूत फैसलों से ओझल हुई डिमांड

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अर्थव्यवस्था

पिछले कार्यकाल के दौरान नोटबंदी और जीएसटी जैसे बलात फैसले थोपने से दौड़ती भागती अर्थव्यवस्था की गाड़ी पंचर हो गई। उसका असर अब गहराने लगा है। लिंचिंग और भय के माहौल ने बाहरी और घरेलू दोनों निवेशकों को डराया परिणामस्वरूप बाहर के आए ही नहीं और घरेलू निवेशक देश के बाहर संभावनाएं तलाशने लगे। पिछले कार्यकाल के दौरान नोटबंदी और जीएसटी जैसे बलात फैसले थोपने से दौड़ती भागती अर्थव्यवस्था की गाड़ी पंचर हो गई। उसका असर अब गहराने लगा है। लिंचिंग और भय के माहौल ने बाहरी और घरेलू दोनों निवेशकों को डराया परिणामस्वरूप बाहर के आए ही नहीं और घरेलू निवेशक देश के बाहर संभावनाएं तलाशने लगे।

अर्थव्यवस्था को लेकर सरकार की नीतियां और लिए गए फैसलों में अंतर्विरोध दिखता आया है। मोदी सरकार द्वारा पिछले पांच सालों के दौरान जो कुछ किया गया अब समय का वो कालखण्ड हिसाब किताब मांगने के लिए तैयार खड़ा है। अर्थव्यवस्था वह छत्रछाया हैए जिसके पटरी पर उतर जाने से देश की संस्थाओं से लेकर आम आदमी के परिवार को भी बड़े गहरे प्रभावित करती है। अर्जेंटीना की अर्थव्यवस्था की दुर्गती नसीहत भरा उदाहरण थाए जिसे जानकारों ने चीख चीख कर चेताया था। आज जो अर्थव्यवस्था की गति है वह पिछले पांच वर्षों के कर्मों का फल ही तो है। देश की आर्थिक समृद्धि कल क्या होगी वह आज के फैसलों से तय होगी। ऐसी कोई जादू की छड़ी नहीं है कि उसे घुमाया जाए और आसमान से सब हरा भरा उतर आए।

विकास के नारे पर सवार होकर भारत की अर्थव्यवस्था पिछले छै साल के सबसे निचले स्तर पर आ गई है। यह चौंकाने वाले आंकड़े किसी और के नहींए बल्कि केन्द्र सरकार द्वारा जारी किए गए हैं। केन्द्र के इन आंकड़ों के अनुसार इस साल की दूसरी तिमाही में भारत की जीडीपी की विकास दर 4.5 फीसदी दर्ज की गई है। ये जुलाई.सितंबर समयावधि में दर्ज हुई छह साल में सबसे धीमी विकास दर है। पिछली तिमाही में ये पांच प्रतिशत थी और साल भर पहले इसी अवधि में यह सात प्रतिशत पर थी। सुब्रमण्यम स्वामी इसे 1.5 फीसदी बता रहे हैं तो इस पर आश्चर्य नहीं बल्कि जानने समझने और चौकन्ना होनी की जरूरत है। अफसोस हुक्मरानों ने किसी का न सुनी और अब भी सुनने मानने तैयार नहीं हैं।

पिछले पांच वर्षों में सरकार के प्रारब्ध को महसूस करने से पता चलता है कि विकास को जेहन से नीचे उतरने का कोई लक्ष्य था ही नहीं। कुटिलता को दिमाग में रखकर जनता के समक्ष नेताओं की वादा करने की यह प्रवृत्ति कुछ कालखण्ड के लिए जनमत बढ़ाने का परिणाम तो दे सकती हैए लेकिन आगे चलकर यह घातक सिद्ध होगी। इंदिरा गांधी के समय से शुरु हुई यह परंपरा कालांतर में नीचे गिरती गई। जिसका परिणाम यह हुआ कि उसने अब सियासी दल ;प्रत्याशीद्ध और मतदाता के बीच के संबंधों को अपवित्र करके रख दिया है। आजादी के सात दशक बीत जाने के बाद भी औसत भारतीय मतदाता का दिमाग वैज्ञानिकता पर आधारित तर्कों के लिए तैयार ही नहीं हो सका। यही वजह है कि अर्थशास्त्र और इकोनॉमी को लेकर सामान्य समझ का भी विकास नहीं हो सका। पिछले छै वर्षों के दौरान जनता की इस नासमझी का इतना ज्यादा फायदा उठाया गया कि उनके घरों का अर्थशास्त्र छिन्न भिन्न हो गया और वह मानसिक गुलामी में जीने को मजबूर है। राजनेताओं को यह बात क्यों समझ नहीं आ रही कि अब आप लोगों के परेशान दिमाग का प्रेशर कुकर टेस्ट लेने जा रहे है।

अभी अक्टूबर माह में बेरोजगारी की दर बढक़र 8.5 प्रतिशत हो गई। सरकार ने सालाना 2 करोड़ का रोजगार देने का जो वादा किया थाए उसके लिए 8 फीसदी से ऊपर की जीडीपी विकास दर चाहिए और वो तो करीब करीब आधी ही है। सरकारी सेवाएं सीमित हैं और निजी क्षेत्र की विकास दर गिरकर तीन प्रतिशत पर हैए इसलिए यहां भी रोजगार के बचे अवसर भी हाथ से जा रहे हैं। फिर निवेश की तरफ देखें कि इससे नए रोजगार पैदा होंगे तो उसकी विकास दर भी गिरकर 1 प्रतिशत पर खड़ी हो गई है। जब तक अर्थव्यवस्था में निवेश नहीं बढ़ेगा तब तक नौकरियां पैदा नहीं होंगीए नौकरियां नहीं होंगी तो लोगों की आय कैसे बढ़ेगी और जब लोगों की आय नहीं बढ़ेगी तो लोग खर्च भी नहीं करेंगे। जब लोग के पास खर्च करने के लिए पैसा नहीं होगा तो निजीतौर पर खपत भी नहीं बढ़ेगी और यही हालात हैं। ये हालात पिछले पांच साल के कार्यकाल में किए गए पापों का परिणाम हैए जिसे देश भुगत रहा है।

पिछले पांच सालों के पाप कर्मों का असर अगले पांच और उससे भी अधिक अवधि के लिए स्थाई समस्या पैदा कर चुके हैं। देश के आर्थिक हालात अगले 6 महिने से दो वर्षों के दौरान और भी खराब होने की आशंकाएं बनी हुईं हैं। ये हालात सुधरेंगे कैसे तो जिस हालत में भारत की अर्थव्यवस्था है वहां पर कुछ भी फौरी कदम उठाने से ठीक नहीं हो सकता। अभी सरकार को जो भी कदम उठाने हैं उनका असर लंबे समय के बाद देखने को मिलेगा। हां अगर सरकार श्रम सुधार या भूमि सुधार की दिशा में ईमानदारी के साथ काम करती है तो इसका असर लंबे समय में क्रमशरू देखने को मिल सकता है।

बृजेन्द्र द्विवेदी

1 thought on “मजबूत फैसलों से ओझल हुई डिमांड

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